प्रयागराज, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूरे प्रदेश में सरकारी जमीन या आम जनता के उपयोग के उद्देश्य से आरक्षित भूमि पर अतिक्रमण 90 दिनों के भीतर हटाने का निर्देश दिया है।
अदालत ने ग्राम सभा की भूमि पर अतिक्रमण की सूचना देने या अतिक्रमण हटाने में प्रधानों और लेखपालों और राजस्व अधिकारियों की निष्क्रियता को गंभीरता से लेते हुए कानून के मुताबिक कार्रवाई करने में विफल अधिकारियों के खिलाफ विभागीय और आपराधिक मुकदमों का भी आदेश दिया और इस निष्क्रियता को आपराधिक विश्वासघात के समान बताया।
न्यायमूर्ति पीके गिरि ने मनोज कुमार सिंह नाम के एक व्यक्ति द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर यह आदेश पारित किया। सिंह का आरोप है कि मिर्जापुर के चुनार में ग्राम चौका में एक तालाब पर ग्रामीणों द्वारा अतिक्रमण किया गया है और शिकायत के बावजूद स्थानीय प्रशासन की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई।
अदालत ने छह अक्टूबर को पारित अपने आदेश में कहा कि जलाशयों पर किसी तरह के अतिक्रमण की अनुमति नहीं है और भारी जुर्माने तथा दंड के साथ जितनी जल्दी हो सके, अतिक्रमण हटाना सुनिश्चित किया जाए।
अदालत ने कहा, ‘‘जल ही जीवन है और बिना जल के पृथ्वी पर किसी भी प्राणी का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए जल को किसी भी कीमत पर बचाना होगा।
अदालत ने कहा कि चूंकि गांव में सरकारी जमीन के संरक्षण के लिए भूमि प्रबंधन समिति जिम्मेदार है, प्रधान और लेखपाल समेत इसके सदस्यों की निष्क्रियता भारतीय न्याय संहिता की धारा 316 के तहत आपराधिक विश्वासघात है।
न्यायमूर्ति गिरि ने निर्देश दिया कि इस तरह की विफलता के लिए बीएनएस के तहत आपराधिक मुकदमा शुरू किया जाए।
फैसले में कहा गया कि ग्राम सभा की जमीन सौंपी गई संपत्ति है और इस पर अतिक्रमण की सूचना देने में किसी तरह की विफलता या गलत ढंग से कब्जा लेने की अनुमति देना जन विश्वास का बेइमानी से दुरुपयोग के समान है।
अदालत ने पुलिस अधिकारियों को अतिक्रमण हटाने में पूरा सहयोग करने का भी निर्देश दिया जिससे यह प्रक्रिया शांतिपूर्ण ढंग से और बिना किसी बाधा के पूरी हो सके।
अदालत ने यह निर्देश भी दिया कि अतिक्रमण की सूचना देने वाले व्यक्ति को हर चरण पर सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए। यदि अतिक्रमण बना रहता है या आदेश का अनुपालन नहीं किया जाता है तो अधिकारियों के खिलाफ उच्च न्यायालय में आपराधिक अवमानना का मुकदमा शुरू किया जा सकता है।