नयी दिल्ली, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारी संगठनों ने शुक्रवार को सरकार के उस निर्णय का कड़ा विरोध किया जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों एवं बीमा कंपनियों में शीर्ष पदों पर निजी क्षेत्र के उम्मीदवारों से भी आवेदन मांगे जाने की घोषणा की गई है।
श्रमिक संगठनों का संयुक्त मंच यूएफबीयू (यूनाइटेड फोर ऑफ बैंक यूनियन) ने सरकार के इस निर्णय को राष्ट्रीय संस्थाओं के सार्वजनिक चरित्र पर हमला बताते हुए कहा कि यह इन संस्थानों के नेतृत्व का असल में निजीकरण करने की कोशिश है।
सार्वजनिक बैंकिंग कर्मचारियों के प्रतिनिधि संगठन ने कहा कि यह दिशानिर्देश संबंधित नियामकीय कानूनों में किसी तरह का संशोधन किए बगैर जारी किए गए हैं। यह निर्देश भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, 1955, बैंकिंग कंपनी अधिनियम (1970 एवं 1980) और भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) अधिनियम, 1956 के तहत नियुक्ति प्रक्रिया और सार्वजनिक उत्तरदायित्व के ढांचे को भी बदलता है।
नए दिशानिर्देशों के मुताबिक, एसबीआई के प्रबंध निदेशक (एमडी) और एलआईसी के एमडी का एक-एक पद निजी क्षेत्र के उम्मीदवारों के लिए खुला रहेगा। गौरतलब है कि दोनों संगठनों में चार-चार एमडी होते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य बैंकों के कार्यकारी निदेशक (ईडी) के पद पर भी निजी क्षेत्र के उम्मीदवार आवेदन कर सकते हैं।
बैंक संगठन ने मांग की है कि सभी संशोधित दिशानिर्देश तत्काल प्रभाव से स्थगित किए जाएं और सभी सार्वजनिक बैंकों एवं एसबीआई में शीर्ष पदों पर नियुक्ति ढांचे की व्यापक समीक्षा की जाए।
संगठन ने समीक्षा के लिए वित्तीय सेवाओं के विभाग, भारतीय रिजर्व बैंक, एफएसआईबी, यूएफबीयू और स्वतंत्र न्यायविदों को मिलाकर एक संयुक्त हितधारक समिति बनाने की मांग की।
यूएफबीयू ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकिंग कैडर के भीतर आंतरिक उत्तराधिकार बनाए रखने पर जोर दिया ताकि नेतृत्व संगठन के भीतर से ही उभरे।
संगठन ने चेतावनी दी कि बाहरी व्यक्ति की नियुक्ति, एपीएआर-आधारित मूल्यांकन को हटाना और निजी मानव संसाधन एजेंसियों के जरिये चयन करना सार्वजनिक बैंकों एवं एसबीआई के सार्वजनिक और संवैधानिक स्वरूप को कमजोर करता है।
संघ ने कहा कि नीति में इस एकतरफा बदलाव से सार्वजनिक क्षेत्र के नेतृत्व पदों को खुले बाजार की नियुक्तियों में बदल दिया गया है, जिससे करियर-आधारित उत्तराधिकार और संस्थागत निरंतरता खतरे में पड़ती है।