“मैंने 10 साल उस संस्थान में काम किया है. पन्ने पर बदलाव करने के लिए कई बार घर से देर रात वापस ऑफ़िस भी गई ताकि एडिशन ठीक से निकले. लेकिन मेरी 10 साल की सर्विस को ख़त्म करने में उन्हें कुछ ही मिनट लगे.”
काजल हिंदी अख़बार नवभारत टाइम्स में काम करती थीं और कुछ दिनों पहले अचानक उनसे इस्तीफ़ा माँग लिया गया है.
नवभारत टाइम्स में वह अकेली नहीं हैं बल्कि सीनियर कॉपी एडिटर से लेकर एसोसिएट एडिटर स्तर तक के कई पत्रकारों से इस्तीफ़ा देने को कहा गया है.
संस्थान में दिल्ली-एनसीआर, लखनऊ और अन्य ब्यूरो से लोग निकाले गए हैं. सांध्य टाइम्स और ईटी हिंदी बंद हो गए हैं. इसके अलावा फ़ीचर पेज की टीम को भी मिला दिया गया है.
इसी संस्थान के एक और पत्रकार ने बताया कि एक दिन संपादक और एचआर ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके कहा लॉकडाउन के कारण कंपनी नुक़सान में है और इसलिए आपकी सेवाएं ख़त्म की जा रही हैं. आप दो महीने का वेतन लीजिए और इस्तीफ़ा दे दीजिए.
मीडिया में नौकरी जाने की शुरुआत मार्च में लॉकडाउन के कुछ समय बाद ही हो गई थी. अलग-अलग संस्थानों से बड़ी संख्या में पत्रकारों को नौकरी से निकाला जाने लगा. ये सिलसिला अब तक जारी है.
मीडिया संस्थानों का कहना है कि लॉकडाउन के कारण उनके अख़बारों का सर्कुलेशन कम हुआ है, सप्लीमेंट बंद हो रहे हैं और विज्ञापन का पैसा भी कम हुआ है.
किसी संस्थान ने कर्मचारियों को बिना वेतन की छुट्टियों पर भेज दिया है, किसी ने दो महीने का वेतन देकर इस्तीफ़ा माँगा है तो किसी ने तुरंत प्रभाव से निकाल दिया है.
दैनिक हिंदी अख़बार ‘हिंदुस्तान’ का एक सप्लीमेंट ‘स्मार्ट’ बंद हुआ है. इस सप्लीमेंट में क़रीब 13 लोगों की टीम काम करती थी जिनमें से आठ लोगों को कुछ दिनों पहले इस्तीफ़ा देने के लिए बोल दिया गया.
हिंदी न्यूज़ वेबसाइट राजस्थान पत्रिका के नोएडा दफ़्तर सहित कुछ और ब्यूरो से भी लोगों को टर्मिनेशन लेटर दे दिया गया है. उन्हें जो पत्र मिला है उसमें दो या एक महीने का वेतन देने का भी ज़िक्र नहीं है. सिर्फ़ बक़ाया लेने के लिए कहा गया है.
इसी तरह हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप में भी पत्रकार से लेकर फ़ोटोग्राफ़र तक की नौकरियों पर संकट आ गया है. एचटी ग्रुप के ही सप्लीमेंट ‘मिंट’ और ‘ब्रंच’ से भी लोगों को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा है.
‘द क्विंट’ नाम की न्यूज़ वेबसाइट ने अपने 200 लोगों की टीम में से क़रीब 45 को ‘फ़र्लो’ यानी बिना वेतन की छुट्टियों पर जाने को कह दिया है.
दिल्ली-एनसीआर से चलने वाले न्यूज़ चैनल ‘न्यूज़ नेशन’ ने 16 लोगों की अंग्रेज़ी डिजिटल की पूरी टीम को नौकरी से निकाल दिया था.
टाइम्स ग्रुप में ना सिर्फ़ लोग निकाले गए हैं बल्कि कई विभागों में छह महीनों के लिए वेतन में 10 से 30 प्रतिशत की कटौती भी गई है. इसी तरह नेटवर्क18 में भी जिन लोगों का वेतन 7.5 लाख रुपये से अधिक है उनके वेतन में 10 प्रतिशत की कटौती हुई है.
दूसरों की नौकरी और रोज़ी-रोटी पर मँडरा रहे संकट पर बात करने वाले पत्रकारों का भविष्य अब खुद खतरे में है.
हिंदुस्तान टाइम्स में कई सालों से काम कर रहे फ़ोटोग्राफ़र अमन को इस्तीफ़ा देने के लिए बोला गया है.
उनकी पत्नी गर्भवती हैं. वो कहते हैं, “मुझे अगले कई महीनों तक नौकरी मिलने के आसार नज़र नहीं आते. अब इस हालत में अपनी पत्नी को क्या बताऊं. उन्होंने मुझे ऐसे समय पर निकाला है जब मुझे इस नौकरी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी.”
एक प्रतिष्ठित हिंदी न्यूज़ वेबसाइट में कंसल्टेंट के पद पर काम करने वाले रोहित कहते हैं कि उनका कॉन्ट्रैक्ट छह महीने बाद ख़त्म कर दिया गया.
कंपनी का कहना था कि अभी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है इसलिए कॉन्ट्रैक्ट नहीं बढ़ा सकते. आगे ज़रूरत होगी तो उन्हें सूचना देंगे. रोहित कहते हैं कि वो दिल्ली में किराए पर रहते हैं. कोई मकान मालिक किराया माफ़ करने वाला नहीं है. बेटी को इस साल स्कूल में एडमिशन भी दिलवाना है. ख़र्चे तो उतने ही हैं, ऊपर से तनख्वाह बंद हो गई है
अचानक ही सेवाओं से निकाले गए कई पत्रकारों का ये भी आरोप है कि उन्हें नौकरी से निकालने का ठोस कारण नहीं बताया गया. अगर कंपनी घाटे में है तो उन्हें ही क्यों चुना गया.
हिंदुस्तान अख़बार के सप्लिमेंट ‘स्मार्ट’ की टीम का हिस्सा रहे अमित कहते हैं, “हम वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे. एक दिन एचआर का फ़ोन आया और हमें ऑफ़िस बुलाया. वहाँ जाकर अचानक बोल दिया गया कि कंपनी नुक़सान में है, स्मार्ट बंद हो गया है और आपकी सेवाएँ भी ख़त्म हो गई हैं. सबसे दुख की बात है कि मैनेजमेंट के पास इसका कोई जवाब नहीं कि हमें ही क्यों निकाला. ना काम में कमी बताई और ना कोई ग़लती. मैं यहाँ पर पिछले एक साल से काम कर रहा हूं. आज मेरे पूरे परिवार के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है.”
राजस्थान पत्रिका न्यूज़ वेबसाइट में काम करने वाले सुनील वहाँ कंटेंट राइटर के तौर पर काम कर रहे थे. वह बताते हैं, “हमारे यहाँ से छह लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है. मेरा प्रदर्शन कोई ख़राब नहीं था. हाँ, मेरी संपादक से बहस हो चुकी थी. उन्होंने बिना कारण बताए निकाला है तो ज़रूर निजी वजह रही होगी.”
राजस्थान पत्रिका में एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया, “संस्थान में कई ब्यूरो और सेंटर से लोगों को निकाला गया है. प्रबंधन का कहना था कि कोरोना वायरस के कारण जिन सेंटर से रिवेन्यू नहीं आ रहा है और पिछले तीन-चार महीनों से जो आर्थिक स्थिति ख़राब है, उसे ध्यान में रखते हुए वेतन में कटौती की गई है और छँटनी का फ़ैसला भी लिया गया है.”
“लेकिन, ऐसा नहीं है कि किसी को निजी नापसंदगी की वजह से नहीं निकाला गया है. किन लोगों को निकाला जाएगा इस फैसले में कई वरिष्ठ अधिकारियों को भी शामिल नहीं किया गया. प्रबंधन कभी इस तरह नहीं सोचता. ये फैसला उच्च स्तर पर लिया गया है. कर्मचारियों को कंपनी की स्थिति की सूचना दी गई है.”
हालांकि, जिन कंपनियों ने भी अपने कर्मचारियों को निकालने का कारण बताया है, उन्होंने लॉकडाउन के चलते हुए नुक़सान की बात कही है. उनका कहना है कि अख़बारों के पन्ने कम हो गए हैं, सप्लीमेंट बंद हो गए हैं और विज्ञापन आना कम हुआ है.
लेकिन, क्या कंपनियों की मुश्किलें इतनी बढ़ गई हैं कि कुछ ही महीनों में इतने बड़े स्तर पर कर्मचारियों को निकाल दिया जाए. इसे लेकर हमने भारतीय जन संचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर आनंद प्रधान से बात की.
डॉ. आनंद प्रधान कहते हैं, “ये आर्थिक संकट पिछले एक-डेढ़ साल से चल रहा था. अख़बार से लेकर न्यूज़ चैनल तक की विज्ञापनों से कमाई में कमी आ रही थी. अब कोरोना वायरस के कारण ये संकट अचानक और गहरा गया है जिसका असर हम देख रहे हैं. लेकिन, ये भी सही है कि बड़े मीडिया समूहों कि आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब नहीं है कि उन्हें लोगों को नौकरी से निकालना पड़े. ये लोग एक-डेढ़ साल मैनेज कर सकते थे. शीर्ष प्रबंधन स्तर पर वेतन में कटौती हो सकती थी.”
“लेकिन, ये सभी कारोबारी हैं, लिस्टेड कंपनियाँ हैं जिन्हें अपना मुनाफ़ा दिखाना होता है. इसलिए ये लोग हायर और फायर की नीति अपनाते हैं. आज ज़रूरत कम है तो निकाल दिया और कल हालत सुधरने पर जब विस्तार करेंगे तो फिर से नए लोगों को रख लिया.”
वहीं, प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष जयशंकर गुप्ता भी मुसीबत के इस दौर में कर्मचारियों को निकालने को सही नहीं मानते.
वह कहते हैं, “कंपनियों को घाटा नहीं हुआ है बस उनका मुनाफ़ा कम हो गया है और ये लोग उसी मुनाफ़े की भरपाई कर्मचारियों से कर रहे हैं. अगर 25 पन्नों का अख़बार 15 पन्नों का हो गया है तो उसकी छपाई का ख़र्च भी कम हुआ है. फिर ये कंपनियाँ जब कई गुना मुनाफ़ा कमाती हैं तो क्या उसी अनुपात में कर्मचारियों को भी फ़ायदा देती हैं लेकिन नुक़सान में उनसे ही भरपाई करती हैं.”
जयशंकर गुप्ता इस संबंध में सरकार के हस्तक्षेप की बात कहते हैं. वह कहते हैं कि सरकार से इन अख़बारों को सब्सिडी मिलती है तो क्यों नहीं इन पर दबाव डालकर लोगों की नौकरी बचाई जाती है.
हालांकि, आनंद प्रधान मानते हैं कि सरकार का निजी कंपनियों पर बहुत ज़्यादा ज़ोर नहीं चल सकता. सरकार कुछ वित्तीय मदद कर सकती है लेकिन ये कंपनी और कर्मचारी के बीच का मामला होता है. सरकार पर भी कंपनियों की ओर से काफ़ी दबाव होता है.
वह कहते हैं कि आज हर सेक्टर में नौकरियाँ जा रही हैं. मीडिया कारोबारी स्तर पर दूसरे सेक्टर या कंपनियों से अलग नहीं है. लेकिन, जैसे कि इससे लोग सूचना पाते हैं, जागरुक होते हैं तो ये जन कल्याण से जुड़ा काम है.
इसलिए अगर मीडिया संस्थान बंद होने लगे या टीम छोटी होने लगे तो लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी, सूचना और विचारों की विविधता व बहुलता पर बुरा असर पड़ेगा.
(लोगों के अनुरोध पर स्टोरी में उनकी पहचान छिपाई गई है. पत्रकारों के नाम बदल दिए गए हैं.)
बीबीसी हिंदी से साभार