केंद्र सरकार ने उस मीडिया रिपोर्ट को खारिज किया है, जिसमें कोरोना से हुई असल मौतों को सरकारी आंकड़ों से 5 से 7 गुना ज्यादा बताया गया था। सरकार ने रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों को गलत बताया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने बिना नाम लिए उस रिपोर्ट की निंदा की है।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने द इकॉनॉमिस्ट में छपे आर्टिकल को काल्पनिक और भ्रम फैलाने वाला बताया है। मंत्रालय ने कहा है कि रिपोर्ट में जिस तरह से महामारी के आंकड़ों का आकलन किया गया है, उसका कोई आधार नहीं है। किसी भी देश में इस तरह से आंकड़ों का अध्ययन नहीं किया जाता।
उक्त लेख में पर्याप्त साक्ष्य के बिना एक विकृत विश्लेषण किया गया है। जो किसी महामारी विज्ञान के साक्ष्यों पर आधारित नहीं है।
पत्रिका द्वारा अधिक मृत्यु दर के अनुमान के लिए जो तरीके अपनाए गए हैं, वह अध्ययन किसी भी देश या क्षेत्र की मृत्यु दर निर्धारित करने के लिए मान्य तरीके नहीं है।
पत्रिका द्वारा उद्धृत तथाकथित “सबूत” वर्जीनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर लाफलर द्वारा किया गया एक अध्ययन है। इंटरनेट पर वैज्ञानिक रिसर्च और उससे अध्ययन को प्रकाशित करने वाले पबमेड, रिसर्चगेट आदि जैसे प्लेटफॉर्म पर भी अध्ययन उपलब्ध नहीं है। इसके साथ ही पत्रिका द्वारा खुद भी अध्ययन की विस्तृत पद्धति का उल्लेख नहीं किया गया है।
एक अन्य प्रमाण तेलंगाना में बीमा दावों के आधार पर किया गया अध्ययन है। फिर से इस तरह के अध्ययन पर कोई वैज्ञानिक डेटा उपलब्ध नहीं है। और न ही किसी अन्य संस्थान ने ऐसा कोई आकंड़ा प्रस्तुत किया है।
दो अन्य अध्ययनों पर भरोसा किया गया है, जो कि “प्रश्नम” और “सी-वोटर” नाम के सेफोलॉजी समूहों द्वारा किए गए हैं। ये संगठन चुनाव परिणामों के संचालन, अनुमान लगाने और विश्लेषण करने में अच्छी तरह से पेशेवर हैं। वे कभी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य अनुसंधान से जुड़े नहीं रहे है। चुनाव विज्ञान के अपने क्षेत्र में भी, चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने के लिए उनके तरीके कई बार सटीक नहीं रहे हैं।
अपने स्वयं के प्रस्तुतीकरण में, पत्रिका कहती है कि ‘इस तरह के अनुमानों को अव्यवस्थित और अक्सर अविश्वसनीय स्थानीय सरकारी आंकड़ों से, कंपनी के रिकॉर्ड से और ऐसी चीजों जैसे श्रद्धांजलि के विश्लेषण से निकाला गया है ।
केंद्र सरकार कोविड-19 के आंकड़ों के प्रबंधन के प्रति अपने दृष्टिकोण में पारदर्शी रही है। मई 2020 की शुरुआत में, रिपोर्ट की जा रही मौतों की संख्या में असंगति से बचने के लिए, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित आईसीडी-10 कोड के अनुसार सभी मौतों की सही रिकॉर्डिंग के लिए ‘भारत में कोविड-19 से संबंधित मौतों की उपयुक्त रिपोर्टिंग के लिए दिशानिर्देश’ जारी किए हैं। राज्य और संघ राज्य क्षेत्रों से औपचारिक संचार, कई वीडियो कॉन्फ्रेंस और केंद्रीय टीमों की तैनाती के माध्यम से मौतों की सही रिपोर्टिंग के लिए जारी दिशानिर्देशों का पलान करने को कहा गया है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी नियमित रूप से जिलेवार मामलों और मौतों की दैनिक आधार पर निगरानी के लिए एक मजबूत रिपोर्टिंग तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया है। ऐसे राज्य जो लगातार कम दैनिक मौतों की रिपोर्ट कर रहे हैं उनसे भी कहा गया है कि वे अपने आंकड़ों की फिर से जांच करें। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को पत्र लिखकर कहा है कि वह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को मौतों की मिलान संख्या की विस्तृत तारीख और जिले के आधार पर ब्यौरा दे।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि गंभीर और लंबे समय तक चलने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान दर्ज की गई मृत्यु दर में हमेशा अंतर होगा। जैसे कि कोविड-19 महामारी और अतिरिक्त मृत्यु पर अच्छी तरह से किए गए शोध अध्ययन, आमतौर पर उस घटना के बाद किए जाते हैं जब मौत की पुष्टि विश्वसनीय स्रोतों से हो जाती है। इस तरह के अध्ययनों के लिए तरीके अच्छी तरह से स्थापित हैं, आंकड़ों के स्रोतों को भी परिभाषित किया गया है और उन्हें मृत्यु की गणना के लिए मान्य मान्यताओं के रूप में भी परिभाषित किया गया है।
ब्रिटेन की मैगजीन द इकोनॉमिस्ट ने दावा किया था कि भारत में कोरोना से जितनी मौतें सरकारी आंकड़ों में दिखाई गई हैं, असल में मौतें उससे 5 से 7 गुना ज्यादा हुई हैं। शनिवार को मैगजीन ने एक आर्टिकल पब्लिश किया था। इसमें वर्जिनिया की कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर लेफलर की रिसर्च को आधार बनाया गया था।
रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 2021 में महामारी के पहले 19 सप्ताह के दौरान प्रति 1 लाख लोगों में से 131 से लेकर 181 लोगों की मौत हुई है। ये डेटा 6 राज्यों में हुई रिसर्च के आधार पर जारी किया गया था। यदि इसे पूरे देश में लागू किया जाए तो 2021 में 19 सप्ताह के अंदर ही 17 लाख से लेकर 24 लाख लोगों की मौत हुई है।